हर तरफ मायूसियाँ ,चेहरों पर उदासियाँ ,
थी जहाँ पर महफ़िलें ;है वहां तन्हाईयाँ !
कुदरती इन जलजलों से कांपती इंसानियत ,
उड़ गयी सबकी हंसी ;बस गम की हैं गहराइयाँ !
क्यूँ हुआ ऐसा ;इसे क्या रोक हम न सकते थे ?
बस इसी उलझन में बीत जाती ज़िन्दगानियाँ !
है ये कैसी बेबसी अपने बिछड़ गए सभी
बुरा हो वक़्त ,साथ छोड़ जाती हैं परछाइयाँ !
जो लहर बन कर कहर छीन लेती ज़िन्दगी
उस लहर को मौत कहने में नहीं बुराइयाँ !
हे प्रभु कैसे कठोर बन गए तुम इस समय ?
क्या तुम्हे चिंता नहीं मिल जाएँगी रुसवाइयां !
शिखा कौशिक