शिव महापुराण -८
ऐसी साधना ह्रदय में करती सदा आलोक है ;
साधक को प्राप्त होता दिव्य शिव का लोक है ;
श्रवण-मनन का पुन: विस्तार से वर्णन किया ;
सूत जी ने ऋषि -कर्णों में था अमृत भर दिया .
प्रभु के दिव्य-गुणों को एकाग्रचित्त हो सुनना ;
दृढ -मति से सुन चित्त में सदा ही धरना ;
ये ''श्रवण'' है इसका तुम ध्यान सदा रखना ;
शिव के भक्त बनकर उद्धार अपना करना .
श्रद्धा और भक्ति से शिव नाम जाप करना ;
''कीर्तन'' कहते इसे ;तुम स्मरण में रखना ;
रूप;गुण व् नाम का मन से जब चिंतन करो
''मनन''कहते हैं इसे ;शिव स्वरुप उर में धरो .
इन तीन विधियों से सदा जो शिव -आराधन में लगे ;
उसकी जीवन-नैय्या तो पार भव-सागर लगे ;
मैं सुनाता हूँ तुम्हे प्राचीन एक आख्यान ;
सूत जी बोले सुने होकर के सावधान .
सरस्वती सरिता-तट पर तप कर रहे महान ;
ऐसे वेदव्यास जी से पूछते सनत्कुमार
आप किस लक्ष्य से कर रहे हैं तप यहाँ ?
वेदव्यास बोले बस मुक्ति है लक्ष्य मेरा .
तब सनत्कुमार ने विनम्र हो बोले वचन
पूर्व में मैंने भी तप को माना था मुक्ति-सदन ;
मंदराचल पर मैं भी था तप बड़ा करने लगा
तब नंदिकेश्वर ने ज्ञान मुझको ये दिया
तप को मुक्ति मार्ग कहना एक बड़ा अज्ञान है;
मुक्ति मन्त्र तो शिव-महिमा का श्रवण-गान है ;
इस ज्ञान ने मिटा दी भ्रम की काली छाया ;
छोड़ मिथ्या-मार्ग को सत्य -पथ अपनाया .
हे मुनियों !व्यास जी को जब मिला ये ज्ञान ;
हो गया हर प्रश्न का उत्तम ही समाधान ;
दिव्य ज्ञान ने उनका मार्ग था प्रशस्त किया ;
सत्य-पथ पर चल सिद्धि रुपी फल उनको मिला .
इस कथा को जब सुना मुनियों ने फिर से कहा
सूत जी पुन: कहिये प्राणी का मुक्ति-मार्ग क्या ?
सूत जी उवाच -तीनो उपाय से शिव भक्ति करो
और संग पवित्र लिंगेश्वर-स्थापना करो .
[जारी ....]
शिखा कौशिक
1 टिप्पणी:
बहुत सुंदर
एक टिप्पणी भेजें