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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

happy new year -2011

खुशियों की माला लेकर ;
नववर्ष खड़ा तेरे द्वारे ;
इस नए वर्ष में जो देखो ;
वे सपने सच्चे हो सारे .
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तुम स्वस्थ रहो ;बलवान बनो;
धनवान बनो ;विद्वान बनो;
इस वर्ष में नित दिन सेवा कर ;
आज्ञाकारी संतान बनो ;
मन में नव  पुण्य  जाग्रत  हो  ;
पाप सभी मन के हारें  ;
इस नए वर्ष में जो देखो ;
वे सपने सच्चे हो सारे .
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घर -आँगन  जगमग-जगमग हो ;
नित मंगलकारी साज बजें ;
आपस में प्रेमभाव पनपे;
बैर क़ा पेड़ कटे जड़ से ;
धरती पर पैर जमाकर  तुम ;
छू आओ नभ के सब तारे .
इस नए वर्ष में जो देखो
वे सपने सब सच्चे हो सारे .

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

एक माँ की अभिलाषा

ओ मेरे मासूम बेटे ! आग नफरत की बुझाना ,
गीत जो गाये अमन के ;उसके सुर में सुर मिलाना . 
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आपसी सदभाव के पौधे  की क्यारी सीचना ,
बैर की फैली हुई घास जड़ से खीचना ;
तू गिराना दुश्मनी की हर खड़ी दीवार को ;
खुद को ऊँचा मानकर हरगिज कभी न रीझना ;
धर्म  जो पूछे कोई  ,इंसान हूँ इतना बताना .
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धर्म-जाति-आग में घर बहुत हैं जल चुके ,
गोद है उजड़  चुकी ,बहुत सुहाग लुट चुके,
लूट मार क़त्ल के इस दौर को तू रोकना,
आपसी विद्वेष के खंजरों को तोडना ,
है अगर तू खून मेरा, मेरा कहा करके दिखाना,
ओ!मेरे मासूम बेटे!आग नफरत की बुझाना.

रविवार, 19 दिसंबर 2010

आपकी ही दोस्त हूँ !

मुस्कुराने को कहूँ तो मुस्कुरा भी दीजिये ;
हाल जो पूछूं तुम्हारा ;गम सुना भी दीजिये ,
मैं नहीं उनमें से कोई ;
आये और आकर चल दिए ,
मैं जो आऊं घर तुम्हारे 
ठहराने  की जहमत कीजिये .
मैं नहीं पीती हूँ साकी ;
ये तुम्हे मालूम है ;
तो मुझे चाय क़ा प्याला  ;
शक्कर मिला कर दीजिये .
सोचते तो होगे तुम ;
कैसी ये बेशर्म है ?
रोज आ जाती है
अफ़साने सुनाने के लिए ;
''दोस्त आपकी ही हूँ ''
ये सोच कर सह लीजिये .
मुस्कुराने को कहूँ तो
मुस्कुरा भी दीजिये .

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

हर तरफ आवाज ये उठने लगी है ...

''सौप कर जिनपर हिफाजत मुल्क की ;
ले रहे थे साँस राहत की सभी ;
चलते थे जिनके कहे नक़्शे कदम पर ;
जिनका कहा हर लफ्ज तारीख था कभी ;
वो सियासत ही हमे ठगने   लगी है ;
हर तरफ आवाज ये उठने लगी है .
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है नहीं अब शौक खिदमत क़ा किसी को ;
हर कोई खिदमात क़ा आदी हुआ है  ;
लूटकर आवाम क़ा चैन- ओ  -अमन ;
वो बन गए आज जिन्दा बददुआ हैं ;
वो ही कातिल ,वो ही हमदर्द ,ये कैसी दिल्लगी है ;
हर तरफ आवाज ये उठने लगी .
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कभी जो नजर उठते ही झुका देते थे;
हर एक बहन के लिए खून बहा देते थे ;
कोई फब्ती भी अगर कसता था ;
जहन्नुम  उसको  दिखा  देते थे ;
खुले बाजार पर अब अस्मतें लुटने लगी हैं ;
हर तरफ आवाज ये उठने लगी है .

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

क्रांति स्वर में ललकारें

छोड़ विवशता वचनों को 
व्यवस्था -धार पलट डालें ; 
समर्पण की भाषा को तज
क्रांति स्वर में ललकारें .
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छीनकर जो तेरा हिस्सा
बाँट देते है ''''अपनों '''' में
लूटकर सुख तेरा सारा
लगाते  सेंध  ''सपनों'' में ;
तोड़ कर मौन अब अपना
उन्हें जी भर के धिक्कारें .
समर्पण की भाषा को तज
क्रांति स्वर में ललकारें .
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हमी से मांगकर वोटें
जो सत्तासीन हो जाते ;
भूलकर के   सारे वादे
वो खुद में लीन हो जाते ,
चलो मिलकर   गिरा दें
आज सत्ता-मद की दीवारें .
समर्पण की भाषा को तज
क्रांति स्वर में ललकारें .
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डालकर धर्म -दरारें
गले मिलते हैं सब नेता ;
कुटिल चालें हैं कलियुग की
ये न सतयुग, न है त्रेता ,
जगाकर आत्म  शक्ति को
चलो अब मात दे डालें .
समर्पण की भाषा को तज
क्रांति     स्वर में ललकारें.
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रविवार, 12 दिसंबर 2010

piya-preysi

प्रेम क़ा रूप ऐसा भी होता है ;
मेरी कल्पना क़ा ही ये एक झरोखा है ,
इसमें पिया और प्रेयसी क़ा मिलन है ;
जिससे प्रफुल्लित होता अंतर्मन है ,
कौन है पिया और कैसी है प्रेयसी ?
''सावन जैसा पिया '' ''बरखा जैसी प्रेयसी''
देखती हूँ तो देखती रह जाती हूँ ;
सावन उठाता है बरखा के मुख से
श्यामल मेघों क़ा घूघंट ;
और बरखा -लजाकर ,सकुचाकर
हो जाती है -पानी-पानी-पानी.

रविवार, 5 दिसंबर 2010

khel

जन्म के ही साथ मृत्यु  जोड़  देता है ;
हे प्रभु ! ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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माता -पिता की आँखों क़ा जो है उजाला ;
अंधे की लाठी और घर क़ा जो सहारा ;
ऐसे ''श्रवण '' को भी निर्मम छीन लेता है.
हे प्रभु !ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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हाथ में मेहदी रचाकर ,ख्वाब खुशियों के सजाकर ,
जो चली फूलों पे हँसकर ,मांग में सिन्दूर भरकर ,
ऐसी सुहागन क़ा सुहाग छीन लेता है .
हे प्रभु ! ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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जन्म देते ही सदा को सो गयी ,
चूम भी न पाई अपने लाल को ,
नौ महीने गर्भ में रखा जिसे ,
देख भी न पाई एक क्षण उसे ,
दुधमुहे बालक की जननी छीन लेता है .
हे प्रभु ! ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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बांहों क़ा झूला झुलाता ,घोडा बनकर जो घुमाता ,
दुनिया क्या है ? ये बताता ,गोद में हँसकर उठाता ,
ऐसे पिता क़ा साया सिर से छीन लेता है .
हे प्रभु ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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याद में आंसू बहाता ,राह में पलके बिछाता ,
हाथ में ले हाथ चलता ,तारे तोड़ कर वो लाता   ,
ऐसे प्रिय  को क्यूँ प्रिया से छीन लेता है .
हे प्रभु ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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छोड़कर सुख के महल जो दुःख के बन में साथ थी ,
जिसके ह्रदय में हर समय श्री  राम नाम प्यास थी ,
ऐसी सिया को राम से क्यूँ  छीन लेता है ?
हे प्रभु ये खेल कैसे खेल लेता है ?
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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

sadak

मैं सड़क हूँ ,मैं गवाह हूँ
आपके गम और ख़ुशी की ,
है नहीं कोई सगा पर
मैं सगी हूँ हर किसी की .
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मुझपे बिखरे रंग होली के ये देखो ;
मुझपे बिखरा खून ये दंगों क़ा देखो ;
मुझपे होकर जा रही बारात देखो ;
मुझपे ले जाते हुए ये अर्थी देखो ;
मैं गवाह आंसू की हूँ और कहकहों की ,
मैं सड़क हूँ ,मैं गवाह हूँ 
आपके गम और ख़ुशी की .
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मंदिरों तक जा रहे मुझपे ही चलकर ;
मस्जिदों तक जा रहे मुझपे ही चलकर ;
मैं गरीबों को सुलाती थपकी देकर ;
मैं अमीरों को निभाती ठोकर सहकर ;
एक ही कीमत लगाती हूँ मैं हर इंसान की ,
मैं सड़क हूँ ;मैं गवाह हूँ आपके गम और ख़ुशी की .
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बुधवार, 1 दिसंबर 2010

bas itna jaan le ..

सपने न देख सतरंगी
ए मेरे दोस्त !
इस दुनिया  क़ा रंग काला है
बस इतना जान ले !
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ह्रदय की भव्यता क़ा
कोई मोल  नहीं ;
पैसे क़ा बोलबाला है ;

बस इतना जान ले !
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न मांग कुछ भी
भिखारी बनकर ;
गुंडों क़ा बोलबाला है ,
बस इतना जान ले !
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मंगलवार, 30 नवंबर 2010

jindgi jeekar dekhiye !

कभी सुख कभी दुःख क़ा साया ,
कभी धूप तो कभी छाया ,
कभी चमकती हुई आशा ,
कभी अँधेरी निराशा ,
कभी मुस्कुराते चेहरे ;
कभी मुरझाई शक्ले ,
कभी सुनहरा प्रभात ,
कभी काली रात,
कभी सूखती धरती,
कभी बरसता बादल,
ये सब देखना है......
तो जिन्दगी जीकर देखिये ! !

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

hariyali ka geet

मैं .....सिर्फ मैं !
खड़ी हुई हूँ ..
हरी- हरी
बेलों ;पत्तियों
से घिरी हुई ,
''असीम आनंद ''
से अभिभूत ,
सोचती हुई
इसकी मनोरमता
के विषय में ,
तभी........कुछ
खग- वृन्दो   क़ा 
मधुर स्वर 
मेरे कानो से 
....टकराया !
जैसे इस हरियाली 
ने हो अपना
''मीठा गीत सुनाया ''.

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

इंसानियत क़ा दरिया


किसी की आँख का आंसू
मेरी आँखों में आ छलके;
किसी की साँस थमते देख
मेरा दिल चले थमके;
किसी के जख्म की टीसों पे
मेरी रूह तड़प जाये;
किसी के पैर के छालों से
मेरी आह निकल जाये;
प्रभु ऐसे ही भावों से मेरे इस दिल को तुम भर दो,
मैं कतरा हूँ मुझे इंसानियत क़ा दरिया तुम कर दो.
किसी क़ा खून बहता देख
मेरा खून जम जाये;
किसी की चीख पर मेरे
कदम उस ओर बढ़ जाएँ;
किसी को देख कर भूखा
निवाला न निगल पाऊँ  ;        
किसी मजबूर के हाथों की
मैं लाठी ही बन जाऊं;
प्रभु ऐसे ही भावों से मेरे इस दिल को तुम भर दो,
मैं कतरा हूँ मुझे इंसानियत क़ा दरिया तुम कर दो.

शिखा कौशिक 'नूतन' 

सोमवार, 15 नवंबर 2010

dev uthhan ekaadshi

हे लक्ष्मीपति   !   हे श्री नारायण  !
आज कार्तिक-मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी है;
चार मास   व्यतीत हुए;
शयन-समय समाप्त हुआ;
हे सृष्टि के पालनहार !
जाग जाइये !जाग जाइये!!
****************  ******************
असुरों क़ा संहार करिए;
हम सबका उद्धार करिए;
मिटा दीजिये अज्ञान-तम;
जीव-जगत को बना दीजिये सुदरतम;
कल्याण कीजिये  !!
हे करुणासागर  !!
जाग जाइये ! जाग जाइये!
**************  ****************
हम जानते है!
आपकी निद्रा ''योग-निद्रा'' थी;
जिसमे आप अंतस में
निहार रहे थे सम्पूर्ण  ब्रह्माण्ड   को ;
करते थे नियोजन तब भी;
प्रभु बलि के द्वार से
अर्थात  पाताल-लोक से
लौट आइये !
हे देव !! जाग जाइये ! जाग जाइये !!

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

bijli vibhag par mukadma

सांयकाल के साढ़े  सात बज रहे थे.जून क़ा महीना  था.तनु ने भोजन डायनिंग टेबल पर लाकर रखा ही था क़ि बिजली भाग गयी.इनवर्टर दो दिन से ख़राब था.साहिल ने किसी तरह टॉर्च ढूढ़  कर ऑन की और एक मोमबत्ती  जला दी.तनु पहले ही पसीने-पसीने हो रही थी.बिजली भागते ही उसका गुस्सा फूट पड़ा--.....आपसे परसों से कह रही हूँ इनवर्टर ठीक करा दीजिये...लाइट क़ा तो यही है......मैं मरुँ या जियूं आप पर तो फर्क ही नहीं पड़ता .जब कुछ करना ही नहीं था तो शादी क्यों की ?अब ऐसी गर्मी में क्या खाना खाया जायेगा? यह कहती हुई तनु बैडरूम की ओर बढ़ ली .साहिल क़ा दिमाग भी गर्मी से भन्ना रहा था. वो ऊँची आवाज में बोला ''तुम्हारा  जितना कर दूँ उतना कम .अरे भाई इंसान हूँ दिनभर आफिस  में किटकिट और घर पर तुम्हारी  बडबड .....'' बैडरूम के द्वार तक पहुची तनु इस बात पर भड़कती हुई बोली ''......अच्छा मैं बड-बड करती   रहती हूँ.......ठीक है सुबह ही अपने मायके चली जाती हूँ तभी तुम्हे ....'' तनु अपना वाक्य पूरा करती इससे पहले ही बिजली आ गयी.पंखा चलने से मोमबती बुझ  गयी और तनु-साहिल क़ा गुस्सा भी.तनु डायनिंग टेबल की ओर आती हुई बोली ''कहो चली जाऊ ? '' साहिल मुस्कुराता हुआ बोला ''हाँ ! चली जाओ .मैं तो बिजली विभाग पर केस ठोक दूंगा क़ि तुम्हारी वजह से मेरी पत्नी घर छोड़ कर चली गयी............''साहिल के वाक्य पूरा करने से पहले ही बिजली फिर से भाग गयी.इस बार दोनों अँधेरे में जोर से हँस पड़े.तनु हँसते हुए  बोली ''लो ठोक ही दो बिजली विभाग पर मुकदमा''.

सोमवार, 8 नवंबर 2010

sachchi luxmi

साहिल ने तनु को आवाज लगाकर कहा-''तनु कहाँ रह गयी तुम? हमेशा तुम्हारी वजह से लक्ष्मी पूजन में देरी होती है. साहिल के बोलने क़ा लहजा इतना सख्त  था की तनु की आँखों में आंसू आ गए.ये देखकर साहिल की माताजी ने साहिल को डाटते हुए कहा ''साहिल मैंने तो तुझे सदा स्त्री क़ा सम्मान करना सिखाया था फिर तू इतना कैसे बिगड़ गया? अरे! पहले घर की लक्ष्मी क़ा तो सम्मान कर tabhi तो teri पूजा से लक्ष्मी देवी prasann hogi .'' साहिल को अपनी गलती क़ा अहसास हुआ और उसने तनु की ओर मुस्कुराते हुए कहा ''गृहलक्ष्मी जी यहाँ आ जाइये  हमे आपसे माफ़ी भी मांगनी है और आपकी पूजा भी करनी है''. साहिल की बात सुनकर माता जी और तनु दोनों हस पड़ी.

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

short story-phool

सिमरन दो साल के बेटे विभु को लेकर जब से maiyke आई थी; उसका मन उचाट था.गगन से जरा सी बात पर बहस ने ही उसे यंहा आने के लिए विवश किया था.यूँ गगन और उसकी 'वैवाहिक रेल' पटरी पर ठीक गति से चल रही थी पर सिमरन के नौकरी की जिद karne पर गगन ने इस रेल में इतनी जोर क़ा ब्रेक लगाया क़ि यह पटरी पर से उतर गई और सिमरन विभु को लेकर मायके आ गयी.सिमरन अपने से निकली तो देखा विभु उस फूल क़ि तरह मुरझा गया था जिसे बगिया से तोड़कर बिना पानी दिए यूँ ही फेंक दिया गया हो.कई बार सिमरन ने मोबाईल उठाकर गगन को फोन मिलाना chahaपर नहीं मिला पाई ये सोचकर क़ि ''उसने क्यों नहीं मिलाया?' मम्मी-पापा व् छोटा भाई उसे समझाने क़ा प्रयास कर हार चुके थे. विभु ने ठीक से खाना भी नहीं खाया था बस पापा के पास ले चलो क़ि जिद लगाये बैठा था.विभु को उदास देखकर आखिर सिमरन ने मोबाईल से गगन क़ा nmbar मिलाया और बस इतना कहा-''तुम तो फोन करना मत,विभु क़ा भी dhyan नहीं tumhe?'' गगन ने एक क्षण की चुप्पी के बाद कहा -''सिम्मी मैं शर्मिंदा था......मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे...........पर तुम अपने घर क़ा गेट तो खोल दो ........मैं बाहर ही खड़ा हूँ....!''यह सुनते ही सिमरन की अंको me आंसू आ गए वो विभु को गोद में उठाकर गेट खोलने के लिए बाद ली.  गेट खोते ही गगन को देखकर विभु मचल उठा ........पापा.....पापा........'' कहता हागगन की गोद में चला गया.सिमरन ने देखा की आज उसका फूल फिर से खिल उठा था और महक भी रहा था.

सोमवार, 1 नवंबर 2010

aao hum deepavali manayen

आओ हम दीपावली क़ा पर्व ऐसे मनाये;
दीप आशा के जगाकर; निराशा-तम को मिटाए.
हमारे मन में जो भी मैल हो द्वेष द्वन्द क़ा
रगड़-रगड़ के प्रेम -झाड़ू से usko हटाये.
ग़लतफ़हमी के सारे जाले साफ़ हम कर दे;
ख़ुशी के फूलों को फिर से खिलाएं.
हरेक स्त्री है luxmi बस इतना जान ले;
उसे देंगे सदा सम्मान;मन से ये कसम खाए.
न केवल कोठियों पर हो जगमगाहट;
हरेक झोपडी भी रोशिनी से अबके नहाये.
मिठाई बाटनी है अबके हमको  मीठे बोलों की;
रंगोली द्वार पर सुन्दर सी सजाएँ.
कंडील टांग दें अपने घरों पर सन्देश ये लिखकर;
अमन की हवा ही इसको hilaye.
जगे जब दीप समता क़ा  मिटाकर भेद पैसे क़ा;
अमावास की अंधरी रात भी पूनumकी हो जाये.

रविवार, 31 अक्टूबर 2010

poem-maa

माँ! तेरे जैसा कोई नहीं!
हम सब गलत
बस तुम ही सही.
तुम्हरे आँचल
की छाया में;
सब कुछ हमने पाया.
तुम्हारा स्नेह पाकर
ही हमने पाई
है ये काया.
''तुम हो तो हम है
तुम नहीं तो हम नहीं''.
माँ! तेरे जैसा कोई नहीं!

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

jeevan-naiya

जब अँधेरा ही अँधेरा
सामने दिखलाई दे;
एक कदम भी आगे
 रखने क़ा न हौसला रहे;
तब प्रभु के हाथ
जीवन-नैया को तू
छोड़ दे;
वो चाहें तो पार
उतारें; वो चाहें
तो लील दें.

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

poem-amar-suhagan

हे!  शहीद की प्राणप्रिया
तू ऐसे शोक क्यूँ करती है?
तेरे प्रिय के बलिदानों से
हर दुल्हन मांग को भरती है.
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श्रृंगार नहीं तू कर सकती;
नहीं मेहदी हाथ में रच सकती;
चूड़ी -बिछुआ सब छूट गए;
कजरा-गजरा भी रूठ गए;
ऐसे भावों को मन में भर
क्यों हरदम आँहे भरती है;
तेरे प्रिय के बलिदानों से
हर दीपक में ज्योति जलती है.
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सब सुहाग की रक्षा हित
जब करवा-choth -व्रत करती hain
ये देख के तेरी आँखों से
आंसू की धारा बहती है;
यूँ आँखों से आंसू न बहा;हर दिल की
धड़कन कहती है--------
जिसका प्रिय हुआ शहीद यंहा
वो ''अमर सुहागन'' रहती है.

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

poem-jindgi kya hai?

जिन्दगी क्या है?
ख़ुशी के दो -चार पल.
ख़ुशी क्या है?
हर्दय में उठती तरंगों की हलचल.
ह्रदय क्या है? भावनाओं का उद्गम-स्थल.
भावना क्या है?
एक अति सुन्दर वृति.
सुन्दर क्या है?
जो नयनों को भाए.
नयन क्या है?
जो वास्तविकता दिखलाए.
वास्तविकता क्या है?
ये सारा संसार.
संसार क्या है?
दुखों का भंडार.
दुःख क्या है?
सुख की anupasthiti.
सुख क्या है?
मनचाहे की उपस्थिति.
मनचाहा क्या है?
खुशहाल जिन्दगी.
जिन्दगी क्या है?
ख़ुशी के दो -चार पल.

poem-stri ka udghosh

कोमल नहीं हैं कर मेरे;
न कोमल कलाई है;
दिल नहीं है मोम का
प्रस्तर की कड़ाई है.
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नहीं हैं झील सी ऑंखें;
हैं इनमे खून का दरिया;
मै हूँ मजबूत इरादों की
नहीं मै नाजुक -सी गुडिया.
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उठेगा वार तेरा जो मुझे
दबाने के लिए;
उसे मै तोड़ dalungi
भले पहने हूँ चूड़िया.
************************
मुझे जो सोचकर अबला
करोगे बात शोषण की;
मिटा दूंगी तेरी हस्ती
है मुझमे आग शोलों की.
****************************

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

poem-meri maa

मलाई सी hatheli से
thapki देती मेरी माँ!
मेरे संग- संग हंसती
फिर मेरे ही संग रो
 लेती माँ!
मै गिर jaun;उठ न paun
मुझे उठाकर बड़ा सहारा
देती माँ!
खुद जग-जग कर
मुझे सुलाती;
मेरे सारे काम कराती;
बड़े लाड से चूम के माथा
नई कहानी कहती माँ!

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

poem-bam visphot

फिर हुआ बम-विस्फोट;
उड़ गए कई जन
हवा में
मात्र मांस का एक
लोथड़ा बन कर,
जब सब शांत हुआ,
धुआं छट gaya .
तब का देखकर
नज़ारा शैतानो
का दिल भी दहल
गया,खून से
लथपथ जमीन
उस पर बिखरे शव,
ये नहीं एक
मात्र घटना
ये हो रही हैं
प्रतिपल यहाँ
और वहां.
   

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

poem-sharafat

मै हूँ शरीफ
जानते हैं सब;
इसलिए कोई भी
धमका जाता है
अगर सामने हो
कोई बदमाश
तो प्रत्येक
उसके पैरों में
गिरकर सिर झुकाता है;
सच  कहूँ तो
ये शराफत भी बन 
gayi hai  एक आफत;
जिसको भी देखते हैं शरीफ
उसके समक्ष खुद-ब -खुद
बन जाते है बदमाश
अन्य sab .

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

poem-gareebon se puchhiye...

लगातार कितने
घंटों से
हो रही है
बारिश;
 अमीरों के लिए
एक मनमोहक
सुहावना
मौसम है ये;
पर कच्चे घरों में
रहने वाले और रोज
मजदूरी कर ने वाले
उन इंसानों से पूछिये
जिन्हें शायद
रोज मिलने
वाली दो
'रोटियों' में से
आज आधी भी
न मिल पायेगी.

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

vikhyat: poem-samay

vikhyat: poem-samay: "कुछ छूटता -सा दूर जाता हुआ बार-बार याद आकर रुलाता -सा; क्या है? मै नहीं जानती. कुछ सरकता -सा कुछ बिखरता -सा कुछ फिसलता -सा कुछ पलटता -सा;..."

poem-samay

कुछ छूटता -सा
दूर जाता हुआ
बार-बार याद आकर
रुलाता -सा;
क्या है?
मै नहीं जानती.
कुछ सरकता -सा
कुछ बिखरता -सा
कुछ फिसलता -सा
कुछ पलटता -सा;
क्या है?
मै नहीं जानती.
कंही ये 'समय' तो नहीं-
जो प्रत्येक पल के sath
पीछे छूटता;
हर कदम के sath
दूर होता;
जो बीत गया; उसे
पुन: पाने की आस में
रुलाता ;
धीरे-धीरे आगे बढता हुआ;
हमारे हाथों से निकलता हुआ;
कभी अच्छा ;कभी बुरा;
हाँ! ये वक़्त ही है-
मै हूँ इसे जानती!

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

poem-vijay ka virat parv 'vijaydashmi'

''असत्य पर सत्य की; अभिमान पर स्वाभिमान की;
अंधकार पर प्रकाश की; पाप पर पुण्य की'
अमंगल पर मंगल की; अनीति पर नीति की;
      '  विजय का विराट पर्व'
क्रूरता पर करुना की ; वासना पर प्रेम की ;
उदंडता पर अनुशासन की; निर्लज्जता पर मर्यादा की;
विषाद पर आनंद की ;द्वेष पर sahishunta की;
         'विजय का विराट पर्व'
निष्ठुरता पर संवेदनशीलता की; क्रोध पर क्षमा की;
तामसिकता पर सात्विकता की; लोकपीडा पर लोकमंगल की;
दुश्चरित्रता पर sachchritrta की; संकुचित पर उदात्त की;
            'विजय ka विराट पर्व'
भक्षक पर रक्षक की; दुष्ट पर दयावान की;
शत्रुत्त्व पर बन्धुत्त्व की; मै पर हम की;
         रावन पर shri 'राम' की
      'विजय का विराट पर्व'
      ***************************

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

poem-aatma ki prasanta

मेरा इस जगत में जन्म
मेरे माता-पिता के lie
हर्ष का कारण बना;
किन्तु 'मै' तो रोता हुआ आया
क्योंकि परमपिता परमात्मा
के परम -धाम से मुझे
यहाँ भेजा गया;
परमशान्ति से अशांति के इस
लोक में आने पर आत्मा
भला कैसे प्रसन्न होती?
माता -पिता ने बड़े
प्रयत्नों से मेरी इस देह का
पालन-पोषण किया.
वे प्रसन्न थे क्योंकि
मेरी मानव देह हृष्ट-पुष्ट
हो विकसित हो रही थी;
किन्तु मेरी आत्मा तो
धीरे-धीरे सांसारिक मोह-माया
से कलुषित हो रही थी;
देह के विकास के साथ-साथ
काम; क्रोध;मोह-ममता
के जाल में मेरी आत्मा  fansti गई;
जैसे निर्मल जल मैला हो जाता है
वैसे ही पारदर्शी मेरी आत्मा
मैली होती गई;सांसारिक लोभों से
मै स्वयं को; अपने अंतर्मन को'
अपने आतम-ज्ञान को भोल
भौतिक वस्तुओं और व्यापारों को
सब कुछ समझने लगा;
धन; मान; प्रतिष्ठा को पाकर
इठलाने; इतराने लगा;
मै हर्ष से पुलकित हुआ
पर आत्मा भला कैसे प्रसन्न होती?
आज मेरी देह निर्बल;रोगयुक्त
mratyushaiya पर पड़ी है;
मै दर्द से तड़प रहा हूँ;
मेरे नैनों में पश्चाताप के आंसू  हैं;
इस संसार में आकर ;क्या-क्या
कुकर्म किये? सबके द्रश्य मेरे
नेत्रों में एक-एक कर घोम रहे हैं;
मै आहें भर रहा हूँ;दुखी हूँ;
किन्तु मेरी आत्मा प्रसन्न है
क्योंकि आज इस देह से निकलकर
पुनः परमपिता के
पवान्लोक में प्रस्थान करने जा रही है;
आनन्दसागर में मिलने;मैली बूँद .
रुपी आत्मा पुनः swaachh होने  जा रही है .;;

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

poem-pushp

हे पुष्प!
मुझे तुमसे स्नेह है
क्योकि तुम काँटों के
बीच रहकर ;
अनेक कष्टों को सहकर;
बाटते हो सुगंध;
कभी रोते नहीं;
रहते हो मुस्कुराते हुए;
सचमुच तुम हो
एक उदाहरण 
इस संसार में;
जो देता है
'दुखों को सहकर
मुस्कुराते रहने की प्रेरणा'

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

poem-ek prashn

दहेज़- प्रथा पर
कितने ही निबंध
लिखें होंगें उसने;
कितना ही बुरा
कहा होगा;
लेकिन 'वो'
कली फिर से मसल
दी गई;
नाम 'पूनम' हो या 'छवि'
या कुछ और;
कब रुकेगा
कत्लों का
यह दौर?पूछती
है हर बेटी
इस मूक समाज से;
जो विरोध में
आते हैं दहेज़-हत्या के
क्या निजी तौर पर वे
भी नहीं लेते 'दहेज़'?
एक प्रश्न
जिसका नहीं है
आज किसी के पास
संतोषजनक जवाब....

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

poem-sandhya

मंदिरों से आती
भजनों की आवाज;
टन-टन आती
घंटों  की dhvni;
दूर आकाश में
बादलों के मध्यः
से चमकती नीलिमा;
मंद-मंद चलती
पवन का स्पर्श;
अपने घरों को
लौटते पक्षियों के
पंखों की fadfadahat;
समझे कुछ
ये ''संध्या'' है.

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

sachin ko dohre shatak par badhai

मिसालें झुक के जिसके कदम चूम लेती हैं;
बहारें जिसके आने से खुशी से झूम लेती हैं;
करें तारीफ क्या उसकी? वो हर एक आंख का तारा; विनम्र; विजयी-'सचिन' को सलाम है हमारा.

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !
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राम बनकर आते है; कृष्ण बनकर आते है;
कभी मौहम्मद;नानक; ईसा बनकर आते हैं;
वो प्रभु संसार का दुःख मिटाने आते हैं.
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पाप की कीचड में भी
पुण्य -कमल खिल उठता है;
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मूक के मुख से मधुर
गायन का स्वर निकलता है;
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दुष्ट के दुष्कर्मों का संहार करने आते हैं;
वो प्रभु संसार का दुःख मिटाने आते हैं.
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उनके आगमन से
घट जाता तम का अहम् ;
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ज्ञान ज्योति से चमक उठते 
अज्ञान से अन्धें नयन में
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आस के बुझे  दीपक  जगाने आते हैं;
वो प्रभु संसार का दुःख मिटाने आते हैं.
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                                       शिखा कौशिक 
                    http://shikhakaushik666.blogspot.कॉम


सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

happy birthday to 'AMITABH BACHCHAN'

जन्मदिवस पर हमारा अभिवादन स्वीकार करें;
ईश्वर आपका जीवन नित नए आनंद से भरें;
क्या पाया- क्या खोया isko तो बिसार दें;
जो अधूरे हो स्वप्न उन्हें अब पूरा करें.
प्रशंसकों के ह्रदय -सिंहासन पर विराजमान रहें
आपकी प्रशंसा हमारी जिह्वा प्रतिपल करती रहे;
जय हो; ऐश्वर्य मिले ;यश को मिले विस्तार;
हमारा; अपनों का; सबका भरपूर मिले प्यार.

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

poem-antar

चिलचिलाती धूप भी
कितनी शीतल लगती है
जब एयर- कंडिशनर कमरे
की बंद खिड़की के शीशे से
बाहर देखो.
जनवरी की रात भी
कितनी गरम लगती है
जब कमरों में हीटर
लगाकर लिहाफ में
let जाओ गद्दों
के पलंग par.antar

poem-meri rachna

लिखूं 'कविता' नयी- नयी मैं;
बड़ी मुझे अभिलाषा है;
लेखन की 'पूजा' मैं करूँ;
बस कर्म मुझे ये भाता है.
*****************************
'प्रीति' प्रेम और अच्छे भाव से
कुछ भी जो भी रच दूंगी;
अपनी 'मनीषा' की 'छवि' से
सबके मन को रंग दूंगी.
*****************************
कोई 'ऋतु हो ; कोई समय हो;
बोले कोकिल या 'सारिका'
मेरी कविता-दीप'शिखा' से
'दीप्ति' हो यहाँ-वहां.
मैंने इस कविता में अपने साथ padhi अपनी कई सहेलियों का नाम जोड़ा है. यह भी एक तरीका है अपनी यादों को संजोकर रखने का. 

poem-jindgee se pyar kar;

मत बहाने बना
अपनी akarmneyta के लिए ;
जो दोष हैं तुझमें
बेझिझक उन्हें स्वीकार कर;
जिन्दगी से प्यार कर.
गिर गया तो क्या हुआ
गिरकर सम्भलते हैं सभी;
एक नया अध्याय खोल
हारी बाजी जीतकर;
जिन्दगी से प्यार कर.
मैं नहीं कुछ भी;
नहीं कर सकता कुछ भी अब कभी;
इस तरह न बैठकर
मौत का इंतजार कर;
जिन्दगी से प्यार कर.

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

poem--duvidha

अनंत इच्छाएं ;लालसाएं
असंख्य स्वप्न;सपनें
अभेद्य लक्ष्य;जीवन-सुख
पूर्ण karun तो कैसे?
निराशा की अँधेरी कोठरी
उसमे फंसी मेरी आशाएं;
मै अत्यंत विवश ;स्वतंत्र
करूँ तो कैसे?
असीम आकाश सम
मेरी आकांशाओं का विस्तार
उन्हें जीवन कक्ष में
समेटूं तो कैसे?
अज्ञानी; विवेकहीन
nirutsahi;sahasviheen
मृत-ह्रदय को संचालित
करूँ तो कैसे ?
नयनों में शून्यता
अश्रू-रहित;शुष्क
सरिता सम इन्हें
सरस करूँ तो कैसे?
गुलाबी pankhudyon से ओष्ट
किन्तु मुस्कान से रिक्त;
इन्हें उमंगित
करूँ तो कैसे?
असमंजस;किन्क्रत्वय्विमूद्ता
से युक्त मेरा मस्तिष्क
विचारों की दामिनी se
तरंगित करूँ तो कैसे?
रुके हुए पग
छालें है पड़े हुए;
कंटक युक्त जीवन
पथ पर आगे बढूँ
तो कैसे?

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