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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

खुदा का नूर ''माँ''





बड़े तूफ़ान में फंसकर भी मैं बच जाती हूँ ;
दुआएं माँ की मेरे साथ साथ चलती हैं .
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तमाम जिन्दगी उसकी ही तो अमानत है  ;
सुबह होती है उसके साथ ;शाम ढलती है .
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खुदा का नूर है वो रौशनी है आँखों की ;
शमां बनकर वो दिल के दिए में जलती है 
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नहीं वजूद किसी का कभी उससे अलग ;
उसकी ही कोख में ये कायनात पलती है .
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उसके साये में गम के ओले नहीं आ सकते ;
दूर उससे हो तो ये बात बहुत खलती है .
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मेरे लबो पे सदा माँ ही माँ  रहता है ;
इसी के  डर से  बला अपने आप टलती है .
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5 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

मेरे लबो पे सदा माँ ही माँ रहता है ;
इसी के डर से बला अपने आप टलती है .
खूब... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...

Shalini kaushik ने कहा…

maa ki mahima gati bahut sundar kavita..

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत खूबसूरत भावों को शब्दों में ढाला है.

Kailash Sharma ने कहा…

नहीं वजूद किसी का कभी उससे अलग ;
उसकी ही कोख में ये कायनात पलती है ..

बहुत मर्मस्पर्शी..सच है माँ की कोई तुलना नहीं..

Anita ने कहा…

सचमुच माँ बस माँ ही होती है !