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गुरुवार, 2 अगस्त 2018

''बंजर होती बिरादरी ''

''बंजर होती बिरादरी ''

संभवतः
बस एक ही बिरादरी है ;
जो नहीं होती इकट्ठी
चीखने को साथ ,
अन्याय के खिलाफ ,चाहे
'पुण्य '
 को डस ले पाप !
यहाँ प्रतिस्पर्धा ने ले लिया है
ईर्ष्या का रूप ,
धवल सुमुख हो उठें हैं 
विकृत  कुरूप |
न्याय  के नाविक
हर्षित हैं साथी  के डूबने  पर ,
किन्तु स्वयं भी तो सवार हैं
असंख्य छेदों वाली नावों पर !
चलो
बस एक दिन के लिए
हौसला कर , भूलकर स्वार्थ ,
इकट्ठा हो  जाओ  ,
आँखों पर बंधी भय की  काली पट्टी हटाकर;
और चापलूसी की मदिरा की बोतलें लुढ़काकर ;
मुंह  में भरे बारूद  के  साथ 
फट  पड़ो 
उस अन्यायी सत्ता पर
जिसने सोख ली है तुम्हारी कलम से 
सच्चाई  की स्याही  ,
और तोड़ डाली है तुम्हारी हिम्मत की रीढ़
ताकि  सत्य  के साथ सीधा न खड़ा  हो कोई  |
मासूमों के खून से
आने लगी क्यों वतन परस्ती की सुगंध ,
'प्रसून' क्यों लगने लगे कंटक ?
क्यों तितलियों के मंडराने पर
गुलशन ने लगाया है प्रतिबन्ध ?
इन प्रश्नों की तपिश को
अन्यायियों के ठहाकों से डरकर
ठंडा मत हो जाने दो ,
इन सड़ांध से भरे पोखरों को
समंदर मत हो जाने दो |
लिखो  वो  जो देखो ,
कहो  वो जो  भोगो ,
दिखाओ बिना डरे जनता  की
नंगी छाती पर घोपें गए नफरत के जहरीले खंजर ;
सावधान ,
वरना तुम्हारी बिरादरी हो जाएगी बंजर ||

- डॉ शिखा कौशिक नूतन 

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