तन को चुपड़ना छोड़ सखी कर बुद्धि का श्रृंगार .
देह की चौखट के पार पड़ा है प्रज्ञा का संसार ;
देह की चौखट के पार पड़ा है प्रज्ञा का संसार ;
तन को चुपड़ना छोड़ सखी कर बुद्धि का श्रृंगार .
कब तक उबटन से मल - मल कर निज देह को तुम चमकाओगी ?
कुछ तर्क-वितर्क करो खुद से अबला कब तक कह्लोगी ,
केशों की सज्जा छोड़ सखी मेधा को आज सँवार .
तन को चुपड़ना छोड़ ......
पैरों में रचे महावर है ; हाथों में रचती है मेहँदी ,
नयनों में कजरा लगता है ; माथे पर सजती है बिंदी ,
सोलह सिंगार तो बहुत हुए अब उठा ज्ञान तलवार .
तन को चुपड़ना छोड़ ....
हाथों में कंगन; कान में झुमका; गले में पहने हार ;
पैर में पायल; कमर में तगड़ी ; कितने अलंकार ?
ये कंचन -रजत के भूषण तज फौलादी करो विचार .
तन को चुपड़ना छोड़ सखी कर बुद्धि का श्रृंगार .
शिखा कौशिक
[विख्यात ]
6 टिप्पणियां:
Arthpoorn Panktiyan
अच्छे विचार हैं|
सारगर्भित एवं सार्थक भावभिव्यक्ति....
एक गंभीर विचारणीय प्रस्तुति..हमें आप पर गर्व है कैप्टेन लक्ष्मी सहगल
सही कहा। सार्थक रचना।
वाह अति उत्तम भाव संयोजन्।
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