ओ मेरे मासूम बेटे ! आग नफरत की बुझाना ,
गीत जो गाये अमन के ;उसके सुर में सुर मिलाना .
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आपसी सदभाव के पौधे की क्यारी सीचना ,
बैर की फैली हुई घास जड़ से खीचना ;
तू गिराना दुश्मनी की हर खड़ी दीवार को ;
खुद को ऊँचा मानकर हरगिज कभी न रीझना ;
धर्म जो पूछे कोई ,इंसान हूँ इतना बताना .
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धर्म-जाति-आग में घर बहुत हैं जल चुके ,
गोद है उजड़ चुकी ,बहुत सुहाग लुट चुके,
लूट मार क़त्ल के इस दौर को तू रोकना,
आपसी विद्वेष के खंजरों को तोडना ,
है अगर तू खून मेरा, मेरा कहा करके दिखाना,
ओ!मेरे मासूम बेटे!आग नफरत की बुझाना.
2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर भाव वाली कविता है | धन्यवाद |
आज ऐसी ही माँओं की देश को जरूरत है ! सुंदर कविता !
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