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शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

ये दुनिया मात्र मर्दों की नहीं है !


मेरी एक पोस्ट ''एक बेटी का परम्परा के मुंह पर करारा तमाचा  '' पर ''नव भारत टाइम्स' के मेरे ब्लॉग ''सच  बोलना चाहिए'' पर यह टिप्पणी आई थी
'' ग़लत किया उस लड़की ने परंपराव को तोड़ना नहीं चाहिए औरत कभी भी अग्नि नहिंज दे सकती , उस व्यक्ति की आत्मा को कभी भी मोख नहीं मिल सकता आज कल की लड़कियाँ अपपने आप को कुछ ज्या दा है आयेज समझती है ,लेकिन यह दुनिया मर्दो की है और उनकी है रहेगी 
जिसका जवाब मैं इन शब्दों में उन कुंठित सोच वाले पुरुषों को देना  चाहूंगी जो एक स्त्री की कोख से जन्म लेकर भी इस दुनिया को मात्र पुरुषों की कहने में कोई शर्म महसूस नहीं करते . 

''ये दुनिया मर्दों की है ''
कुंठिंत पुरुष-दंभ की ललकार 
पर स्त्री घुटने टेककर 
कैसे कर ले स्वीकार ?

जिस कोख में पला;जन्मा 
पाए जिससे  संस्कार 
उसी स्त्री की महत्ता ;गरिमा 
को कैसे रहा नकार ?

कभी नहीं माँगा;देती आई 
ममता,स्नेह ;प्रेम-दुलार 
उस नारी  को नीच मानना
बुद्धि  का अंधकार  

''अग्नि -परीक्षा ''को उत्सुक 
''सती ''की करता है जयकार !
फिर पुरुष कैसे कहता
स्त्री को नहीं ''अग्नि ''
देने का अधिकार ?

सेवा,समर्पण,शोषण 
बस इसकी स्त्री हक़दार ?
कृतघ्न पुरुष अब संभल जरा 
सुन नारी -मन चीत्कार 

आँख दिखाना ,धमकाना 
रख दे अपने हथियार  ! 
इनके  विरुद्ध खड़ी है नारी 
लेकर मेधा-तलवार 

खोलो अपनी सोच की गांठें
नारी शक्ति का अवतार 
नर-नारी के उचित मेल से 
सृष्टि  का विस्तार .
                            शिखा कौशिक 
                      [विख्यात ]





3 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सशक्त और सटीक अभिव्यक्ति...हमारी पुरुष प्रधान मानसिकता को बदलना ही होगा..बेटा माता पिता को उम्र भर जिन्दा जलाता रहे तो समाज को कोई शिकायत नहीं होती, लेकिन बेटी ने अंतिम संस्कार किया तो वे धर्म की दुहाई देने लगते हैं. इस दोहरी मानसिकता को कैसे उचित कहा जा सकता है?

Amit Chandra ने कहा…

इस दुनिया में ऐसे बहुत लोग मिल जायेंगे जो परिवर्तन को स्वीकार ही नही करना चाहते. वो वही घिसी पिटी परम्परा के साथ जिंदगी को गुजार देना उचित समझते है. बेहतरीन रचना. आभार.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

भला वो लोग कैसे परिवर्तन स्वीकार कर सकते हैं जिनकी सत्ता छिन रही हो ... बहुत सशक्त रचना