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मंगलवार, 1 जुलाई 2014

जनता बिठाती गद्दी पर जनता ही उतारती !

मेरा दृढ विश्वास है कि केवल आम आदमी ही वास्तव में कोई परिवर्तन ला सकता है क्योंकि -

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शोषणों की आग जब रक्त को उबालती ,
शंख लेकर हाथ में वो फूंक देता क्रांति ,
उसको साधारण समझना है भयानक भ्रान्ति ,
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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हम सामान्य -जन समक्ष श्री राम का आदर्श है ,
एक वनवासी कुचलता लंकेश का महादर्प है ,
''सत्य की है जय अटल '' इसका यही निष्कर्ष है ,
क्रांति -पथ पर वीर बढ़ता सोच ये सहर्ष है ,
थाम देता है गति अधर्म के तूफ़ान की !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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कंस-वध जिसने किया भोला सा ग्वाला श्याम  है ,
आतंक-अन्याय मिटाकर बन गया भगवान है ,
कोटि-कोटि राम-श्याम हममें विद्यमान हैं ,
उत्सर्ग करने को सदा प्रस्तुत हमारे प्राण हैं ,
जन-जन की शक्ति एक होकर विश्व को संवारती !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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साबरमती के संत को भूल सकता कौन है ?
मानव बने महात्मा विस्मित त्रिलोक मौन है ,
बांध दिया जनता को एकता की डोर से ,
मिटा दिया था भेद कौन मुख्य कौन गौण है ,
है अमर ''बापू'' हमारा धड़कनें पुकारती !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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हमको आशाएं बंधाकर , सत्ता का जो करते वरण ,
हम मौन होकर देखते जन-सेवकों का आचरण ,
हैं अगर सन्मार्ग पर , जन-जन करे अनुसरण ,
पथभ्रष्ट उनको देख हम करते अनशन आमरण ,
जनता बिठाती गद्दी पर जनता ही  उतारती !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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आरोप-प्रत्यारोप तो नेताओं के ही काम हैं ,
आम-जन का लक्ष्य तो समस्या-समाधान है ,
छल-कपट से कर भी ले कोई छली  सत्ता-हरण ,
धरना-प्रदर्शन का हम रखते राम-बाण हैं ,
ठान लें तो हम पलट दें हर दिशा ब्रह्माण्ड  की !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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शिखा कौशिक 'नूतन 

शुक्रवार, 27 जून 2014

''नारी तुम हो सुन्दरतम ''



उसने कहा
तुम सुन्दर नहीं !
मन ने कहा
''तुम हो ''
तुम
काली घटाओं सम
शीतल ,
ममता से भरे हैं
तुम्हारे नयन ,
मंगल भावों से युक्त
तुम्हारा ह्रदय  ,
निश्छल स्मित
से दीप्त वदन ,
सेवा हेतु पल-पल
उद्यत ,
आलस्य न
तुममें किंचित ,
इसलिए
जो कहे तुम्हें
''तुम सुन्दर नहीं ''
वो हो जाये
स्वयं लज्जित ,
तुम सृष्टि  की  रचना
अद्भुत  ,
मोहनी भी तुम ,
कल्याणी भी तुम ,
तुमसे आलोकित
विश्व सकल ,
मन पुनः बोला
तुम नारी हो
''तुम हो सुन्दरतम '

शिखा कौशिक 'नूतन'


गुरुवार, 19 जून 2014

खंडित आनंद


सब विश्वास हो जाते हैं चकनाचूर ,
निरर्थक हो जाती हैं प्रार्थनाएं ,
टूट जाता है मनोबल ,
आस्थाओं में पड़ जाती है दरार ,
खाली-खाली हो जाता है ह्रदय ,
भर आते हैं नयन ,
मान्यताएं लड़खड़ा जाती हैं ,
उखड़ जाते हैं आशाओं के स्तम्भ ,
झुलस जाती है हर्ष की फुलवारी ,
वाणी हो जाती है अवाक,
बुद्धि हो जाती है सुन्न ,
मनोभावों की अभिव्यक्ति
हो जाती है असंभव ,
अब भी जिज्ञासा है शेष
ये जानने की कि कब ?
तो सुनो !
ऐसा होता है तब
जब खो देते हैं हम
अपने प्रिय-जन को
सदा के लिए ,
जो देह-त्याग कर
स्वयं तो हो जाता है
अनंत में लीन
और खंड-खंड
कर जाता है हमारा
आत्मिक-आनंद
जो कदापि नहीं हो सकता
पुनः अखंड !!

शिखा कौशिक 'नूतन' 

मंगलवार, 17 जून 2014

'कलम क्या उसकी खाक लिखेगी !!'



नहीं हादसे झेले जिसने ,
आहें नहीं भरी हैं जिसने ,
अगर थाम ले कलम हाथ में ,
कलम क्या उसकी खाक लिखेगी !!
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पलकें न भीगीं हो जिसकी ,
आंसू  का न स्वाद चखा हो ,
अगर लगे दर्द-ए-दिल गानें  ,
दिल पर कैसे धाक जमेंगी !!
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नहीं निवाले को जो तरसा ,
नहीं लगी जिस पेट में आग ,
बासी रोटी  खा  लेने को ,
आंतें उसकी क्यों उबलेंगी  !!

शिखा कौशिक  'नूतन  ' 

रविवार, 8 जून 2014

मर्दों ने कब्ज़ा ली कोख

मर्दों ने कब्ज़ा ली  कोख 
आँखें नम
लब खामोश
घुटती  सांसें
दिल  में क्षोभ
उठा रही  
सदियों से औरत
मर्दों की दुनिया
के  बोझ !
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गाली ,घूसे ,
लात  , तमाचे
सहती औरत
युग-युग से
फंदों पर कहीं
लटकी मिलती ,
दी जाती कहीं
आग में झोंक !
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वहशी बनकर
मर्द लूटता
अस्मत
इस बेचारी की ,
दुनिया केवल
है मर्दों की
कहकर
कब्ज़ा ली
है कोख !

शिखा कौशिक 'नूतन'