कहर बरसा मेरे घर तो वो बोले सब सलामत है ,
गई छींटें जो उनकें घर तो बोले अब क़यामत है !
..........................................................................
मेरे बच्चों ने पी पानी गुज़ारी रात सारी है ,
बराबर के बड़े घर में सुना कुत्तों की दावत है !
.................................................................
बिना गाली के जिनकी गुफ्तगूं होती नहीं पूरी ,
हमें इलज़ाम देकर कह रहे हम बे-लियाकत हैं !
..............................................................
क़त्ल करते हैं और लाशों पे जो करते सियासत हैं ,
नहीं मालूम उनको एक अल्लाह की अदालत है !
................................................................
हमारे हाथ में है जो कलम वो सच ही लिखेगी ,
कलम के कातिलों से इस तरह करनी बगावत है !
शिखा कौशिक 'नूतन'
1 टिप्पणी:
यह दौर ही ऐसा है। जिसमें मानवीयता और संवेदनाएं धीरे धीरे मरती जा रही हैं। पड़ोसी भूखा रहे इसकी किसी को चिंता नहीं है।
एक टिप्पणी भेजें