श्री गणेशाय नम:
''हे गजानन! गणपति ! मुझको यही वरदान दो
हो सफल मेरा ये कर्म दिव्य मुझको ज्ञान दो
हे कपिल ! गौरीसुत ! सर्वप्रथम तेरी वंदना
विघ्नहर्ता विघ्नहर साकार करना कल्पना ''
ॐ नम : शिवाय !
श्री सीतारामचन्द्रभ्याम नम :
'श्री राम ने सिया को त्याग दिया ?''-एक भ्रान्ति !
[google se sabhar ]
सदैव से इस प्रसंग पर मन में ये विचार आते रहे हैं कि-क्या आर्य कुल नारी भगवती माता सीता को भी कोई त्याग सकता है ...वो भी नारी सम्मान के रक्षक श्री राम ?मेरे मन में जो विचार आये व् तर्क की कसौटी पर खरे उतरे उन्हें इस रचना के माध्यम से मैंने प्रकट करने का छोटा सा प्रयास किया है -
'श्री राम ने सिया को त्याग दिया ?''-एक भ्रान्ति !
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सदैव से इस प्रसंग पर मन में ये विचार आते रहे हैं कि-क्या आर्य कुल नारी भगवती माता सीता को भी कोई त्याग सकता है ...वो भी नारी सम्मान के रक्षक श्री राम ?मेरे मन में जो विचार आये व् तर्क की कसौटी पर खरे उतरे उन्हें इस रचना के माध्यम से मैंने प्रकट करने का छोटा सा प्रयास किया है -
हे प्रिय ! सुनो इन महलो में
अब और नहीं मैं रह सकती ;
महारानी पद पर रह आसीन
जन जन का क्षोभ न सह सकती .
एक गुप्तचरी को भेजा था
वो समाचार ये लाई है
''सीता '' स्वीकार नहीं जन को
घर रावण के रह आई है .
जन जन का मत स्पष्ट है ये
चहुँ और हो रही चर्चा है ;
सुनकर ह्रदय छलनी होता है
पर सत्य तो सत्य होता है .
मर्यादा जिसने लांघी है
महारानी कैसे हो सकती ?
फिर जहाँ उपस्थित प्रजा न हो
क्या अग्नि परीक्षा हो सकती ?
हे प्रभु ! प्रजा के इस मत ने
मुझको भावुक कर डाला है ;
मैं आहत हूँ ;अति विचलित हूँ
मुश्किल से मन संभाला है .
पर प्रजातंत्र में प्रभु मेरे
हम प्रजा के सेवक होते हैं ;
प्रजा हित में प्राण त्याग की
शपथ भी तो हम लेते हैं .
महारानी पद से मुक्त करें
हे प्रभु ! आपसे विनती है ;
हो मर्यादा के प्रहरी तुम
मेरी होती कहाँ गिनती है ?
अश्रुमय नयनों से प्रभु ने
तब सीता-वदन निहारा था ;
था विद्रोही भाव युक्त
जो मुख सुकोमल प्यारा था .
गंभीर स्वर में कहा प्रभु ने
'सीते !हमको सब ज्ञात है
पर तुम हो शुद्ध ह्रदय नारी
निर्मल तुम्हारा गात है .
ये भूल प्रिया कैसे तुमको
बिन अपराध करू दण्डित ?
मैं राजा हूँ पर पति भी हूँ
सोचो तुम ही क्षण भर किंचित .
राजा के रूप में न्याय करू
तब भी तुम पर आक्षेप नहीं ;
एक पति रूप में विश्वास मुझे
निर्णय का मेरे संक्षेप यही .
सीता ने देखा प्रभु अधीर
कोई त्रुटि नहीं ये कर बैठें ;
''राजा का धर्म एक और भी है ''
बोली सीता सीधे सीधे .
'हे प्रभु !मेरे जिस क्षण तुमने
राजा का पद स्वीकार था ;
पुत्र-पति का धर्म भूल
प्रजा -हित लक्ष्य तुम्हारा था .
मेरे कारण विचलित न हो
न निंदा के ही पात्र बनें ;
है धर्म 'लोकरंजन 'इस क्षण
तत्काल इसे अब पूर्ण करें .
महारानी के साथ साथ
मैं आर्य कुल की नारी हूँ ;
इस प्रसंग से आहत हूँ
क्या अपनाम की मैं अधिकारी हूँ ?
प्रमाणित कुछ नहीं करना है
अध्याय सिया का बंद करें ;
प्रभु ! राजसिंहासन उसका है
जिसको प्रजा स्वयं पसंद करे .
है विश्वास अटल मुझ पर '
हे प्रिय आपकी बड़ी दया ;
ये कहकर राम के चरणों में
सीता ने अपना शीश धरा .
होकर विह्वल श्री राम झुके
सीता को तुरंत उठाया था ;
है कठोर ये राज-धर्म जो
क्रूर घड़ी ये लाया था .
सीता को लाकर ह्रदय समीप
श्री राम दृढ हो ये बोले;
है प्रेम शाश्वत प्रिया हमें
भला कौन तराजू ये तोले ?
मैंने नारी सम्मान हित
रावण कुल का संहार किया ;
कैसे सह सकता हूँ बोलो
अपमानित हो मेरी प्राणप्रिया ?
दृढ निश्चय कर राज धर्म का
पालन आज मैं करता हूँ ;
हे प्राणप्रिया !हो ह्रदयहीन
तेरी इच्छा पूरी करता हूँ .
होकर करबद्ध सिया ने तब
श्रीराम को मौन प्रणाम किया ;
सब सुख-समृद्धि त्याग सिया ने
नारी गरिमा को मान दिया .
मध्यरात्रि लखन के संग
त्याग अयोध्या गयी सिया ;
प्रजा में भ्रान्ति ये फ़ैल गयी
''श्री राम ने सिया को त्याग दिया ''!!!
शिखा कौशिक
[विख्यात }
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना .... राम के पक्ष को बहुत दृढ़ता से रखा है ...
सिया ने स्वयं ही वन जाने की इच्छा प्रकट की थी यह कहकर आपने उसका सम्मान बढ़ाया ही है...सुंदर रचना !
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