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शनिवार, 10 जनवरी 2015

'अभी हार मत मानो !'


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असफलता से मिलेगी ;
राह सफलता की ,
है जरूरत नर नहीं ;
किंचित विकलता की ,
खुद में छिपी जो शक्ति है ,
उसको तो पहचानो !
अभी हार मत मानो !
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लूट गया सर्वस्व ;
अश्रु मत बहाओ तुम ,
होकर सचेत फिर उठो ;
न यूँ रहो गुमसुम ,
बिगड़े हुए काम को
ऐसे संवारो   !
अभी हार मत मानो !
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गिर गए तो क्या हुआ ;
घुटने न टेको ,
असफल होकर पुनः ;
प्रयास कर देखो ,
जय मिलेगी एक दिन ;
सत्य को जानो !
अभी हार मत मानो !

शिखा कौशिक 'नूतन'

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

''नया ये साल ऐसा हो !''




ज़मी ज़न्नत बने अपनी ,
अमन की अब हुकूमत हो ,
मिटें दिल की सभी दूरी ,
नया ये साल ऐसा हो !
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 दिलों की नफ़रतें सारी  ,
सुपुर्द -ए-खाक हो जायें ,
न केवल गैर की ,अपनी
भी नीयत पाक हो जाये ,
मिटे जब दुश्मनी दिल से ;
समां ये ज़श्न जैसा हो !
मिटें दिल की सभी दूरी ,
नया ये साल ऐसा हो !
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न कुचली जायें कोखों में ,
न ऑनर के लिए मारें ,
लुटे औरत की न अस्मत ,
मिले  अब हक़ उसे सारे  ,
बराबर का हो जब दर्ज़ा ;
गुरूर-ए-मर्द कैसा हो !
मिटें दिल की सभी दूरी ,
नया ये साल ऐसा हो !
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मिले दो वक्त की रोटी  ,
न भूखा अब कोई  सोये ,
अन्न का दाता अब कोई ,
क़र्ज़ का बोझ न ढोये ,
मिले मेहनत का फल मीठा ;
किसानों पर भी पैसा हो !
मिटें दिल की सभी दूरी ,
नया ये साल ऐसा हो !
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दिखाकर ख़्वाब हज़ारों ,
हुए सत्ता पे जो काबिज़ ,
मुकर जायें जो वादों से ,
करें बर्दाश्त न हरगिज़ ,
खिलाफत हम करें खुलकर ;
तभी जैसे को तैसा  हो !
मिटें दिल की सभी दूरी ,
नया ये साल ऐसा हो !
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चलें रंगों की बस गोली ,
मनें संग ईद और होली ,
छटें आतंक के कोहरे ,
न जनता क़त्ल हो भोली ,
नहीं हथियार पर 'नूतन'
अहिंसा पर भरोसा हो !
मिटें दिल की सभी दूरी ,
नया ये साल ऐसा हो !

शिखा कौशिक 'नूतन'








बुधवार, 24 दिसंबर 2014

माँ का चुम्बन !


 मेरे माथे पर 
नरम -गरम 
दो अधरों की छुअन ,
कितना पावन !
कितना पवित्र !
माँ का चुम्बन !

फैलाकर बाहें 
माँ का घुटनों 
तक झुक जाना ,
दौड़कर मेरा 
माँ से लिपट जाना !
मातृत्व का अभिनन्दन !
कितना पावन !
कितना पवित्र !
माँ का चुम्बन !


ढिठाई पर पिटाई ,
मेरा रूठ जाना ,
माँ का मनाना ,
माँ का दुलार ,
ममता की फुहार !
माँ से शुरू 
माँ पर ख़त्म !
मेरा बचपन !
कितना पावन !
कितना पवित्र !
माँ का चुम्बन !

शिखा कौशिक 'नूतन '

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

'एक नया अध्याय खोल'

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मत बहाने बना
अपनी अकर्मण्यता के लिए ;
जो दोष हैं तुझमें
बेझिझक उन्हें स्वीकार कर;
जिन्दगी से प्यार कर.
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गिर गया तो क्या हुआ
गिरकर सम्भलते हैं सभी;
एक नया अध्याय खोल
हारी बाजी जीतकर;
जिन्दगी से प्यार कर.
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मैं नहीं कुछ भी;
नहीं कर सकता कुछ भी अब कभी;
इस तरह न बैठकर
मौत का इंतजार कर;
जिन्दगी से प्यार कर.

SHIKHA KAUSHIK 'NUTAN'

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

जनता बिठाती गद्दी पर जनता ही उतारती !

मेरा दृढ विश्वास है कि केवल आम आदमी ही वास्तव में कोई परिवर्तन ला सकता है क्योंकि -

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शोषणों की आग जब रक्त को उबालती ,
शंख लेकर हाथ में वो फूंक देता क्रांति ,
उसको साधारण समझना है भयानक भ्रान्ति ,
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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हम सामान्य -जन समक्ष श्री राम का आदर्श है ,
एक वनवासी कुचलता लंकेश का महादर्प है ,
''सत्य की है जय अटल '' इसका यही निष्कर्ष है ,
क्रांति -पथ पर वीर बढ़ता सोच ये सहर्ष है ,
थाम देता है गति अधर्म के तूफ़ान की !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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कंस-वध जिसने किया भोला सा ग्वाला श्याम  है ,
आतंक-अन्याय मिटाकर बन गया भगवान है ,
कोटि-कोटि राम-श्याम हममें विद्यमान हैं ,
उत्सर्ग करने को सदा प्रस्तुत हमारे प्राण हैं ,
जन-जन की शक्ति एक होकर विश्व को संवारती !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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साबरमती के संत को भूल सकता कौन है ?
मानव बने महात्मा विस्मित त्रिलोक मौन है ,
बांध दिया जनता को एकता की डोर से ,
मिटा दिया था भेद कौन मुख्य कौन गौण है ,
है अमर ''बापू'' हमारा धड़कनें पुकारती !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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हमको आशाएं बंधाकर , सत्ता का जो करते वरण ,
हम मौन होकर देखते जन-सेवकों का आचरण ,
हैं अगर सन्मार्ग पर , जन-जन करे अनुसरण ,
पथभ्रष्ट उनको देख हम करते अनशन आमरण ,
जनता बिठाती गद्दी पर जनता ही  उतारती !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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आरोप-प्रत्यारोप तो नेताओं के ही काम हैं ,
आम-जन का लक्ष्य तो समस्या-समाधान है ,
छल-कपट से कर भी ले कोई छली  सत्ता-हरण ,
धरना-प्रदर्शन का हम रखते राम-बाण हैं ,
ठान लें तो हम पलट दें हर दिशा ब्रह्माण्ड  की !
वो भरे हुंकार तो वसुधा भी  थर-थर कांपती !
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शिखा कौशिक 'नूतन