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गुरुवार, 15 मार्च 2012

हॉकी -'हिंदी'' पीती अपमान का गरल !

   हॉकी  -'हिंदी'' पीती अपमान का गरल !

 

एक  दिन  हॉकी  मिली   ;
क्षुब्ध   थी  ,उसे रोष  था,
नयन  थे अश्रु  भरे 
मन में बड़ा आक्रोश था .


अपमान की व्यथा-कथा   
संक्षेप  में उसने कही ;
धिक्कार !भारतवासियों   पर 
उसने कही सब अनकही .




पहले तो मुझको बनाया 
देश का सिरमौर  खेल ;
फिर दिया गुमनामियों के
 गर्त में मुझको धकेल .


सोने  से झोली  भरी  
वो मेरा ही दौर था ,
ध्यानचंद से जादूगर थे  
मेरा रुतबा  और था .


कहकर रुकी तो कंधे पर 
मैं हाथ  रख  बोली  
सुनो अब बात  मेरी 
हो न यूँ  दुखी भोली .


अरे क्यों रो रही है अपनी दुर्दशा पर ?  
कर इसे सहन  
मेरी तरह ही  पीती रह 
अपमान का गरल 
मैं ''हिंदी'' हूँ बहन !
मैं'' हिंदी '' हूँ बहन !!


                                    शिखा कौशिक 
                      [हॉकी -हमारा राष्ट्रीय  खेल ]

1 टिप्पणी:

Anita ने कहा…

आपकी मोहक आवाज में सुंदर कविता...अब तो हिंदी और हाकी दोनों का भविष्य उज्ज्वल होगा, ऐसा विश्वास है.